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Showing posts from March, 2018
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कुछ तो है पाया मेरे ज़ज्बात्तों ने  क्या खूब खेल खेला,  फिर से एक मुसीबत में डाला  , महावीर के उसूलों से अपने को तोल डाला,  बात खुद तक थी तब तक सही किन्तु इसने तो समाज तक तो तोल डाला खेल खेल में ही सही ! सत्य को सिंहासन से उतरा पाया, अहिंसा को हिंसा में डूबा पाया, अस्तेय को सत्य और अहिंसा के पुजारियों ने ही बेच खाया, और अपरिग्रह को सत्ता के नशे में डूबा पाया, तभी पता चला ब्रहचर्य का, जिसे किसी कूड़े में लहू लुहान पाया l  "Bin Ro" जीवन का सार तो महावीर ने कुछ और ही बतलाया, पर मैने जो सीखा और देखा वो ही में बयां कर पाया, नहीं जान पाया में उन शब्दों को जिनमे , महावीर ने भव से भव को पार लगाया l  पञ्च महाव्रतों का असर, महावीर ने करके दिखलाया, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रहचर्य! फिर, वही प्रश्न व स्वयं को वहीँ का वहीँ पाया, कि किनको कितना में अभी तक जान पायाl  तभी मेरे बंधू सखा ने मुझे जगाया और, जज्बातों के खेल से मुझे तौबा करवाया! पर एक नए एहसास ने इस दिन मनोभाव से, तारणहार का एक मुझे  रास्ता
हर वक़्त रूह के  आगे  तम्मनाए  बहती  रहती  है जैसे  रेगिस्तान  में  माटी  बहती  रहती  है उसे  एहसास  है  की  कुछ  दुरी  पे  ही  है  मंज़िल  मेरी पर  ये  सिलसिला  यूँही  क्यों  चलता  रहता  है ! बिना  रुके  बिना  थके  मंज़िल  के  इंतजार  में  बढ़ते  रहते  है फिर  भी  न  दुरी  कम  होती  है  न  मज़िल  पास  होती  है कुछ  करने  की  न  किसी  से  डरने ख्वाहिशे  है  जो  कहती  रहती  है दो  कदम  और  चल  ले क्योकि आगे  बढ़ने  से  ही नई सोच पल्लवित  होती है "Bin Ro" बिन रोए हसीं की  मस्ती  बस  यही  गुनगुनाती  रहती  है हर वक़्त रूह के आगे  तम्मनाए बहती  रहती  है हर दिन के  उज्जाले से  फिर  भी  वही  भोर  होती  है जिसे  कल  बिता  चुकी  है  यादें  फिर  क्यों  वो  चोर  होती  है एहसास  देती  रहती  है  पास  होने  का, अपना  बनाने  का फिर  भी न  दुरी  कम होती  है  न  मज़िल  पास  होती  हैI